2. देवात्मा फरमाते हैं, कि चाहे हमारा सूर्य अपनी ज्योति देना छोड़ दे तथा चाहे यह धरती हमारे पांवों के नीचे से निकलकर चकनाचूर हो जाए, लेकिन मैं सत्य का पूर्ण अनुरागी होकर तथा सत्य को जानकर उसे कभी तथा किसी अवस्था मे अपने पांवों से कभी कुचल नहीं सकता, तथा हित का पूर्ण अनुरागी होकर हित या शुभ के मार्ग से कभी परे नहीं जा सकता ।
प्रिय मित्रो ! यह कोई साधारण शब्द नहीं हैं, यह देवात्मा के देवजीवन के उद्गार हैं । यदि हम इनका सही अर्थ समझ सकें तथा इनको जीने का प्रयास करें, तभी हमें पता लग सकता है, कि देवात्मा क्या कहना चाहते हैं ।
सारी मानवता अपने सम्पूर्ण जीवन से केवल झूठ तथा बुराई फैलाती है । साधारण शब्दों में — कोई मनुष्य सत्य तथा हित को वहीं तक सहन करता है, जहां तक उसको उससे सुख मिलता है, उससे आगे नहीं । और फिर धर्म के विषय मे तो सारी मानवता घोर आत्म-अंधकार में बुरी तरह ग्रस्त है । अपनी इस अंधकारमय अवस्था से बाहर आना ही नहीं चाहती । कोई मनुष्य अपना या किसी और का शुभ नहीं चाहता, केवल सुख चाहता है, तथा सुख के चाहने को ही अपना शुभ समझता है । इसी अंधकारमय आत्मिक अवस्था के कारण सारे संसार मे बहुत भयावह स्थितियां बनी हुई हैं । मनुष्य की कैसी घोर दुर्दशा !
प्रिय मित्रो ! यह कोई साधारण शब्द नहीं हैं, यह देवात्मा के देवजीवन के उद्गार हैं । यदि हम इनका सही अर्थ समझ सकें तथा इनको जीने का प्रयास करें, तभी हमें पता लग सकता है, कि देवात्मा क्या कहना चाहते हैं ।
सारी मानवता अपने सम्पूर्ण जीवन से केवल झूठ तथा बुराई फैलाती है । साधारण शब्दों में — कोई मनुष्य सत्य तथा हित को वहीं तक सहन करता है, जहां तक उसको उससे सुख मिलता है, उससे आगे नहीं । और फिर धर्म के विषय मे तो सारी मानवता घोर आत्म-अंधकार में बुरी तरह ग्रस्त है । अपनी इस अंधकारमय अवस्था से बाहर आना ही नहीं चाहती । कोई मनुष्य अपना या किसी और का शुभ नहीं चाहता, केवल सुख चाहता है, तथा सुख के चाहने को ही अपना शुभ समझता है । इसी अंधकारमय आत्मिक अवस्था के कारण सारे संसार मे बहुत भयावह स्थितियां बनी हुई हैं । मनुष्य की कैसी घोर दुर्दशा !
काश : हम सबके शुभ का मार्ग प्रशस्त हो !!