प्रिय मित्रो ! हमारे अस्तित्व के दो मुख्य भाग (parts) हैं, जिनमे से एक को शरीर, जो जड़ पदार्थों से बना होता है, तथा दूसरा जीवनी-शक्ति अर्थात आत्मा हैं । इन दोनों भागों में भी आत्मा मुख्य अर्थात सार है, जबकि शरीर गौण अर्थात दूसरे स्थान पर है । आत्मा इसलिए मुख्य है, क्योंकि संसार से स्थूल शरीर की मृत्यु के पश्चात भी प्रायः सभी जीवों की आत्माओं के जीवित रहने के लिए परलोक में सूक्ष्म-शरीर मिल जाता है । इसके ठीक विपरीत यदि आत्मा की मृत्यु हो जाये, तो शरीर को कोई दूसरी सूक्ष्म-आत्मा नहीं मिल सकती तथा आत्मिक-मृत्यु के साथ ही शरीर की भी मृत्यु हो जाती है ।
हम सब जानते ही होंगे, कि हर पल जीवन मे हमारी परीक्षा होती रहती है तथा हर पल हमे प्रत्येक विषय के पक्ष या विपक्ष में निर्णय लेने की समस्या खड़ी रहती है । यदि सौभाग्यवश हमने ठीक निर्णय ले लिया, तो हम न केवल हानि से रक्षा पाते हैं, अपितु हित भी पाते हैं । यदि दुर्भाग्यवश हमारा निर्णय गलत हुआ, तो दुःख के साथ साथ हानि भी बहुत उठाते हैं ।
एक शायर ने इसी विषय पर बहुत सुंदर शेयर कहा है । यथा :
लम्हों ने ख़ता की – सदियों ने सज़ा पाई …..
अर्थात मनुष्य कई बार अपने भावों के आवेश में कोई गलत निर्णय ले बैठता है, फिर सारी आयु दुःख पाता तथा तड़पता है । अतः हमारे लिए यह अति आवश्यक है, कि हम अपने भीतर ऐसी योग्यता लाभ कर सकें, कि हम सही तथा ठीक ठीक निर्णय लेकर महा हानि तथा दुःख से रक्षा पाने तथा हित लाभ करने के अधिकारी बन सकें ।
क्योंकि मूल रूप से हम आत्मा हैं, अतः आत्मिक-हित से संबंधित निर्णय ही पूरी तरह सही तथा हितकर निर्णय हो सकता है, अन्य कोई नहीं ।
जीवन मे सही निर्णय लेने की योग्यता केवल धर्म-भावों को लाभ करके ही प्राप्त हो सकती है, तभी तो गीता में कहा गया है कि
“धर्मो रक्षति धार्मिकम” अर्थात केवल धर्म ही धर्मवान व्यक्ति की रक्षा कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।
तातपर्य यह है, कि यदि किसी महा सौभाग्यवान जन को धर्म का सत्यज्ञान तथा बोध प्राप्त हो जाये, तो उसके आत्मिक-जीवन के साथ साथ अन्य कई पक्षों में भी इतना हित होता है तथा हो सकता है, कि उसके जीवन की सदा सदा के लिए दशा तथा दिशा ही बदल जाती है । जब किसी धर्मवान जन का सच्चा आत्मिक हित होने लगता है, तो उसकी भाषा भी बदलकर स्वर्गीय भाषा हो जाती है । इस बात का वृतांत मैं कल के लेख में देने का प्रयास करुंगा ।
सबके शुभ का मार्ग प्रशस्त हो ।
( देवधर्मी)
हम सब जानते ही होंगे, कि हर पल जीवन मे हमारी परीक्षा होती रहती है तथा हर पल हमे प्रत्येक विषय के पक्ष या विपक्ष में निर्णय लेने की समस्या खड़ी रहती है । यदि सौभाग्यवश हमने ठीक निर्णय ले लिया, तो हम न केवल हानि से रक्षा पाते हैं, अपितु हित भी पाते हैं । यदि दुर्भाग्यवश हमारा निर्णय गलत हुआ, तो दुःख के साथ साथ हानि भी बहुत उठाते हैं ।
एक शायर ने इसी विषय पर बहुत सुंदर शेयर कहा है । यथा :
लम्हों ने ख़ता की – सदियों ने सज़ा पाई …..
अर्थात मनुष्य कई बार अपने भावों के आवेश में कोई गलत निर्णय ले बैठता है, फिर सारी आयु दुःख पाता तथा तड़पता है । अतः हमारे लिए यह अति आवश्यक है, कि हम अपने भीतर ऐसी योग्यता लाभ कर सकें, कि हम सही तथा ठीक ठीक निर्णय लेकर महा हानि तथा दुःख से रक्षा पाने तथा हित लाभ करने के अधिकारी बन सकें ।
क्योंकि मूल रूप से हम आत्मा हैं, अतः आत्मिक-हित से संबंधित निर्णय ही पूरी तरह सही तथा हितकर निर्णय हो सकता है, अन्य कोई नहीं ।
जीवन मे सही निर्णय लेने की योग्यता केवल धर्म-भावों को लाभ करके ही प्राप्त हो सकती है, तभी तो गीता में कहा गया है कि
“धर्मो रक्षति धार्मिकम” अर्थात केवल धर्म ही धर्मवान व्यक्ति की रक्षा कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।
तातपर्य यह है, कि यदि किसी महा सौभाग्यवान जन को धर्म का सत्यज्ञान तथा बोध प्राप्त हो जाये, तो उसके आत्मिक-जीवन के साथ साथ अन्य कई पक्षों में भी इतना हित होता है तथा हो सकता है, कि उसके जीवन की सदा सदा के लिए दशा तथा दिशा ही बदल जाती है । जब किसी धर्मवान जन का सच्चा आत्मिक हित होने लगता है, तो उसकी भाषा भी बदलकर स्वर्गीय भाषा हो जाती है । इस बात का वृतांत मैं कल के लेख में देने का प्रयास करुंगा ।
सबके शुभ का मार्ग प्रशस्त हो ।
( देवधर्मी)