“विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म” क्या है ? प्रकृति-सम्मत वह विधि जिसे अपनाकर मनुष्य अपने मूल अस्तित्व “आत्मा” तथा उससे सम्बंधित “शरीर” तथा समस्त विश्व के साथ सत्य तथा हितकर उच्च-मेल की अवस्था को प्राप्त करके अपना सर्वोच्च-हित लाभ करने की अवस्था को प्राप्त होता और हो सकता है — उसे “विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म” कहते हैं | सत्य-धर्म को लाभ अथवा प्राप्त करने के लिए कुछ ‘अति अलौकिक तथा महान सत्य’ हैं जिनके बारे में ज्ञान तथा बोध लाभ करना प्रत्येक अधिकारी जन (सुपात्र व्यक्ति या Fit Soul) के लिए परमावश्यक है | यथा :-
1. पहला अति भव्य तथा महान सत्य यह है कि अधिकारी जन यह जानने और समझने का गहन प्रयास करे, कि प्रकृति व विश्व अपने अस्तित्व के विचार से एक महानतम सत्य है | प्रत्येक जीवित तथा अजीवित “अस्तित्व” प्रकृति के अपने वर्त्तमान “जड़-पदार्थों तथा प्रकृति की ही अपनी जानदार/बेजान” शक्तियों के संघर्ष के फलस्वरूप प्रकट हुआ या होता है | प्रकृति के “विकासक्रम” में प्रत्येक अस्तित्व प्रकट तथा विकसित होता है एवं “विनाश-क्रम” में विश्व से विनष्ट हो जाता है |
2. प्रत्येक जन को जिस दूसरे महान सत्य का ज्ञान तथा बोध लाभ करना अति आवश्यक है, वह यह है कि सारे मनुष्य तथा उससे नीचे के जगतों (पशु तथा वनस्पति-जगत आदि) के सारे अस्तित्व जब प्रकृति के विकासक्रम के सच्चे साथी बनते हैं, तो वह पहले से बेहतर तथा उच्च अवस्था को प्राप्त होते जाते हैं | जो अस्तित्व विकासक्रम का सच्चा और वास्तविक साथी नहीं बन पाता तथा अपने आचरण से इसको अवरुद्ध करने का प्रयास करता है, वह पहले से बदतर, अर्थात बुरा तथा निकृष्ट बनता जाता हैं | यही मनुष्य का नीच-जीवन है | यदि उसकी यह चाल लगातार इसी तरह चलती रहे, तो एक दिन विनाश-प्रक्रिया के ऐसे क्रम के अंतर्गत ऐसा अस्तित्व विश्व से शारीरिक तथा आत्मिक तौर पर पूरी तरह नष्ट हो जाता हैं | मनुष्य के नीच-जीवन का कैसा भयानक परिणाम !
अत: प्रत्येक अधिकारी जन के लिए यह अति आवश्यक है, कि वह “रक्षाकारी तथा विकासकारी” वातावरण की तलाश करे, उसके साथ हृदयगत उच्च-भावों के द्वारा वास्तविक-रूप से जुड़ जाए,ताकि वह अपने मनुष्य-जीवन को पहले से बेहतर, उच्च तथा अधिक से अधिक सुन्दर बना सके एवं सेवाकारी बनकर अपने शरीर तथा आत्मा का अधिक से अधिक हित प्राप्त कर सके | प्रत्येक अधिकारी जन (अर्थात सुपात्र जन), जो अपने आत्मिक-जीवन की रक्षा और विकास् का सच्चा आकांक्षी हो तथा उच्च-जीवन के वरदान प्राप्त करना चाहता हो, उसके लिए परमावश्यक है, कि वह अधिक से अधिक मात्रा में विकासक्रम का सच्चा और वास्तविक साथी बने | किसी मनुष्य के लिए अपने जीवन अथवा आत्मा की रक्षा और विकास करने का इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग प्रकृति में उपलब्ध नहीं है |
3 तीसरा महान सत्य यह है कि ‘सत्य’ और ‘मिथ्या’ दो परस्पर विरोधी “भाव- शक्तियां” हैं | अत: इन दोनों में सदा युद्ध चलता रहता है | परन्तु एक अकाट्य तथ्य यह है कि इस द्वन्द में अंतिम विजय सत्य की ही होती है | (कृप्या ध्यान दें – अंतिम विजय सत्य की ही होती है )| प्रकृति की महान विकास-प्रक्रिया का यह सत्य एवं अलिखित (Unwritten) सन्देश एवं आदेश है तथा विकासक्रम का समूचा इतिहास इस सत्य की बार बार पोषकता करता है |
4 चतुर्थ तथा महान सत्य यह है, कि अधिकारी जन इस बात का ज्ञान तथा बोध पाने का सतत प्रयास करें, कि भलाई का अनुराग तथा बुराई का अनुराग भी दोनों परस्पर विरोधी भाव-शक्तियां हैं | इसलिए भलाई तथा बुराई के अनुरागियों में भी सदा युद्ध चलता रहता है | प्रकृति के अटल नियम के अनुसार इस युद्ध में अंतिम जीत भलाई की होती है तथा बुराई का पराजित होना आवश्यम्भावी है | प्रकृति की महान विकास-प्रक्रिया का यह अटल सन्देश तथा आदेश है तथा विकासक्रम का समूचा इतिहास इस सत्य की बार बार पोषकता करता है |
अत: वह जन बहुत सौभाग्यशाली है जो ऐसे महान-व्यक्तित्व को पहचान सके तथा उसे गुरु रूप में धारण कर सके, जिनका जीवन सदा :–
(a) प्रकृति को एकमात्र पूर्ण तथा सत्य अस्तित्व रूप में स्वीकार करता हो,
(b) जो प्रकृति के विकासक्रम का सच्चा और वास्तविक साथी हो,
(c) जो सत्य और मिथ्या के बीच चल रहे निरन्तर युद्ध में सदा सत्य और
केवल सत्य का प्रबल समर्थक और साथी प्रमाणित हुआ और होता हो,
तथा
(d) जो शुभ और अशुभ के मध्य चल रहे निरन्तर युद्ध में सदा शुभ और
केवल शुभ का प्रबल समर्थक और साथी प्रमाणित हुआ और होता हो |
अर्थात :-
जिस अद्वितीय गुरु के जीवन का प्रत्येक पल अपने जीवन से प्रकृति के उपरोक्त चारों महान सत्यों का मन, वचन तथा कर्म से सदा सच्ची और वास्तविक पोषकता तथा सच्चा प्रतिनिधित्व करता रहा हो – ऐसा गुरु ही विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म का सच्चा दाता हो सकता है | विश्व में एकमात्र परम पूजनीय भगवान् देवात्मा ऐसे सदगुरु ही है, जो उपरोक्त चारों महान सत्यों की अपने जीवन से सदा पोषकता तथा पैरवी करते हैं |
काश ! हम प्रकृति-माता के उपरोक्त चारों भव्य सत्यों की “आत्मा” को हृदयगत भावों से समझ सकें और उनका साथ देने की योग्यता लाभ कर सकें, तभी हम सही अर्थों में सच्चे-धार्मिक बनकर अपने मूल अस्तित्व अर्थात ‘आत्मा’ की रक्षा और विकास लाभ कर सकते हैं | अन्यथा धर्म के नाम पर केवल रस्में तो अवश्य पूरी कर सकते हैं लेकिन वास्तविक हित प्राप्त करने से सदा वंचित रहेंगे |
== देवधर्मी ==
विज्ञान मूलक सत्य-धर्म के सम्बन्ध में चार महान सत्य