प्रिय साथियो ! आप उपरोक्त शीर्षक पढ़ कर आश्चर्यचकित हो गए होंगे, कि ये मैं क्या लिख रहा हूँ, और ऐसा क्यूँ चाहता हूँ ? ऐसा नहीं है कि मैं आत्म-हत्या करना चाहता हूँ, मैं बहुत प्रसन्न हूँ क्योंकि मुझे मनुष्य-जीवन के साथ साथ और बहुत सारे अमूल्य उपहार मिले हुए हैं | मेरे श्रद्धेय पिता जी एक ‘शेर’ अक्सर सुनाया करते थे:-
“ज़िन्दगी के चमन से छांटे हैं – चाहिएं तो पेश करूँ, मेरे दामन में चंद कांटे हैं |”
मेरे जीवन में ऐसा कोई काँटा नहीं, कि जो मुझे जीना हि भुला दे | यदि आप मुझसे जानना चाहें कि मेरे जीवन में सबसे बढ़कर अमूल्य उपहार क्या है – तो मैं निस्संदेह कह सकता हूँ, कि “मनुष्य श्रृष्टि के सरताज, विज्ञान-मूलक सत्य धर्म के संस्थापक, अद्वितीय देव-जीवन- धारी परम पूजनीय भगवान् देवात्मा’ मुझे गुरु रूप में प्राप्त हुए हैं, मेरे जीवन का यह सबसे बड़ा उपहार है जो प्रकृति-माता की ओर से मुझे वरदान स्वरुप प्राप्त हुआ है | मेरा जीवन काँटों से नहीं अपितु फूलों से भरा पड़ा है |
आपकी सोच को थोड़ा उद्वेलित करने के लिए आपकी सेवा में उपरोक्त प्रश्न खड़ा करना चाहता हूँ कि यदि कोई व्यक्तिजो शारीरिक बिमारी, ग़रीबी, सम्बन्धियों से अनमेल या किसी और कारण से आत्म-ह्त्या करना चाहता हो, और अचानक वहआपको मिल जाए और आपसे सलाह मांगे कि मैं आत्म-ह्त्या कर लूं या न करूँ, तो आप उसे क्या सलाह देंगे ? हमें यह ध्यान रखने की बहुत बड़ी आवश्यकता है कि हम जो भी सलाह दें, वह बुद्धिमता-पूर्ण तथा सत्य और शुभ के नियमों पर आधारित होनी चाहिए |
ऐसी ही सलाह एक बार एक अपने गुरु (जो उनके आध्यात्मिक-रूप के अनुरागी थे) श्रीमान पण्डित परमेश्वर दत्त जी‘विशारद’ ने माँगी थी | आप एक जानलेवा बीमारी से बुरी तरह ग्रस्त तथा परेशान थे, डाक्टरों ने पूरी तरह सब प्रकार के संभव इलाज करने के पश्चात बता दिया था कि अब पण्डित जी इस बीमारी से कभी ठीक नहीं हो सकेंगे, और धीरे धीरे क्षय होते होते मृत्यु के मुंह में चले जाएंगे | पण्डित जी का शरीर दिन प्रति दिन दुर्बल और कमज़ोर होता जा रहा था, वह न ढंग से बैठ सकते थे, न कुछ खा पी सकते थे और न हि कुछ काम कर सकते थे | अपनी बीमारी से तंग आकर एक दिन उन्होंनेनिर्णय लिया कि मुझे आत्म-हत्या कर लेनी चाहिए, ताकि इस रोगी और बीमार शरीर से मेरा छुटकारा हो और परलोक में जाकर मैं कुछ हितकर कार्य करने का अवसर पा सकूं |
आत्म-हत्या करने वाला व्यक्ति किसी से पूछा नहीं करता, अपितु वह तो यह सब कर गुज़रता है | लेकिन श्री पण्डित जी अपने आध्यात्मिक-गुरु के अनन्य भक्त थे, और उनकी प्रत्येक आज्ञा पालन करना अपना बहुत बड़ा सौभाग्य मानते थे |इसलिए उन्होंने उनकी सेवा में एक पत्र लिख कर सलाह तथा आज्ञा माँगी |
पण्डित जी के पत्र के उत्तर में गुरु जी ने फरमाया, परमेश्वर दत्त जी, हम मानते हैं कि आपको जान लेवा बीमारी ने घेर रक्खा है, आपका जो उचित इलाज संभव था वह सब करवाया गया, तथा अब भी जो कुछ संभव है, आपके लिए किया जा रहा है, हम यह भी मानते हैं कि समय के साथ साथ आपका शरीर दिन प्रतिदिन दुर्बल और कमज़ोर होता जा रहा है, और फिलहाल इस बीमारी का कोई पक्का-इलाज मानवता के पास फिलहाल नहीं है | लेकिन फिर भी हम आपको आत्म-ह्त्या कर लेने की सलाह नहीं दे सकते | कारण यह है कि आपका सम्पूर्ण अस्तित्व (शरीर तथा आत्मा) आपका अपना नहीं है | आपके इस अस्तित्व को जन्म देने, इसकी रक्षा करने, इसका पालन पोषण करने तथा आपका समुचित विकास करने के लिए चारों जगतों (यथा भौतिक-जगत, वनस्पति-जगत, पशु-जगत तथा मनुष्य-जगत) के अनगिनत अस्तित्वों ने वर्षों बहुत संग्राम किया है | आपने सांस के द्वारा कितनी वायु, पीने के द्वारा कितना पानी, भोजन तथा अन्य लाभ इस संसार से प्राप्त किये हैं |चारों जगतों की अथाह सेवाओं का आपके ऊपर बहुत ऋण चढ़ा हुआ है | मनुष्य-जगत के द्वारा आपको सुसभ्य बनने का तथा मनुष्य होने के नाते उन सब लाभों को पाने का अधिकार प्राप्त है, जो नीचे के तीनों जगतों यथा: भौतिक-जगत,वनस्पति-जगत तथा पशु-जगत को प्राप्त नहीं हैं | आप चारों जगतों से पाए हुए अमूल्य तथा अनगिनत उपकारों को सन्मुख ला सकें तो आपको साफ़ पता चलेगा, कि ये मनुष्य-जीवन जो आपको मिला हुआ है, यह आपका अपना नहीं है, बल्कि किसी और की अमानत है | इसलिए आपको किसी और के जीवन को समाप्त करने का कोई अधिकार नहीं है | यदि कोई जन आत्म-हत्या करता है, तो वह अपनी कायरता का प्रमाण तो देता हि है, इसके साथ साथ वह दूसरों की अमानत को दबा लेने का महा-पाप भी करता है, तथा औरों को आत्म-हत्या कर लेने के लिए प्रेरणा का हेतु भी बनता है | ऐसा जन इस लोक के साथ साथ परलोक में भी दारुण दुखों और कष्टों का भागी बनता है तथा एक न एक दिन परलोक में भी आत्मिक-मृत्यु को प्राप्त होता है | आत्म-हत्या करने का कितना भयानक दण्ड !!!
इसलिए आप आत्म-ह्त्या का विचार बिल्कुल त्याग दें | आपका केवल एक हि कर्तव्य है कि आप अपनी इस जानलेवा बीमारी के साथ बहादुरी से तब तक जंग करते रहें, जब तक कि आप में प्राण है | ऐसा करने से बेशक आपकी बीमारी तो ठीक नहीं होगी, और आपका कष्ट दिन प्रति दिन बढ़ता हि जाएगा, और एक दिन आपके स्थूल शरीर की मृत्यु भी हो जाएगी| लेकिन ऐसा साधन करने से आपका आत्म-बल बहुत बढ़ जाएगा, आपमें धर्म-शक्ति बहुत बढ़ जाएगी तथा आपको उच्च-जीवनप्राप्त होगा | परलोक में जो सूक्ष्म-शरीर आपको प्राप्त होगा, वह बहुत स्वस्थ तथा निरोग होगा, और आप वहां पर बहुत अच्छे तथा उत्तम कार्य करने की योग्यता लाभ कर सकेंगे| और आप आने वाली नस्लों के लिए एक प्रेरणा-स्रोत बन कर उभरेंगे, तथा मनुष्य-इतिहास में आपका एक विशेष स्थान होगा |
प्रिय मित्रो ! आप सहज अनुमान लगा कर देखें कि श्री पण्डित जी (जिनकी देहांत के समय लगभग २८-२९ वर्ष आयु थी) जैसे जन की मानसिक तथा हार्दिक अवस्था उस समय कैसी रही होगी ! बड़े आश्चर्य की बात है कि श्री पण्डित जी ने बड़ी बहादुरी के साथ आत्म-हत्या करने का विचार अपने हृदय से पूरी तरह निकाल दिया | अब उन्होंने प्राण कर लिया कि चाहे कुछ हो जाए, मैं आत्म-हत्या नहीं करूंगा, और अपनी इस जान लेवा बीमारी से बड़ी बहादुरी से जूझते हुए मृत्यु को गले लगाऊंगा |
विचारों और ख्यालों में जीना और बात है – लेकिन वास्तविकता का सामना करना और बात है | जैसी कि आशा थी उनकी बीमारी लगातार बढ़ती गई और उनका शरीर धीरे धीरे दुर्बल तथा कमज़ोर होता गया | बार बार दस्त तथा उल्टियां आना आम बात हो गई | श्री पण्डित जी कुछ भी काम करने से लाचार होते गए | उधर शरीर नीचे हि नीचे जा रहा था, और उधर आत्म-हित की चाह उन्हें परेशान कर रही थी | अन्त में उन्होंने फैसला किया कि जब तक मेरी मृत्यु नहीं हो जाती, तब तक मैं कुछ न कुछ तो अवश्य ऐसा करूं कि जो इस विश्व में हित के लाने वाला हो | मृत्यु-शैय्या पर उन्होंने अपने उन सब उपकारियों को याद करना आरम्भ किया जिनकी कृपा से उन्हें मनुष्य-जीवन सफल करने की बहुत सहायता मिली थी |उन्होंने मृत्यु-शैय्या पर बीच बीच में जब समय मिलता, अपने उपकारियों के उपकारों को याद करना तथा उन्हें लिखवाना शुरू किया | इस प्रकार एक ऐसा जन जो आत्म-हत्या करने के लिए तैयार था- मौत के बिस्तर पर लेटे लेटे एक ऐसी प्रेरणा-दायक अमूल्य पुस्तक लिख गया, जिसका मानव इतिहास में उदाहरण मिलना बहुत कठिन है | इस पुस्तक का नाम “उपकार-माला” है, जिसे सभी आत्म-हित आकांक्षियों को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए |
प्यारे साथियो ! हम सब में से कोई जन ऐसा नहीं है, जो मरना या आत्म-हत्या करना चाहता हो | लेकिन क्या आपको मालूम है कि हम सब धीरे धीरे आत्म-ह्त्या कर रहे हैं | और यह आत्म-ह्त्या भी टुकड़ों में हो रही है, और हमें इसकी खबर भी नहीं है | जो जन धूम्र-पान करता है; जो जन मांसाहार करता है; जो जन शराब पीता है; जो जन जुआ खेलता है; जो जन धन के प्रति अनुचित आकर्षण रखता है, जो जन काम-अनुरागी है, जो जन संतान के साथ अनुचित आकर्षण में बंधा हुआ है,जो जन मान सन्मान का भूखा है तथा ऊंचे ऊंचे सांसारिक पदों के साथ पाप-मूलक भाव से बंधा हुआ है (ऐसी अनेकों बातें हैं) – वह सब आत्म-ह्त्या कर रहे हैं |
वह गुरु थे परम पूजनीय भगवान् देवात्मा जिन्हो ने अपनी अद्वितीय शिक्षा में फरमाया है कि मनुष्य जीना चाहता है,लेकिन उसे यह नहीं पता कि जीवन क्या है ? जीवन की रक्षा और विकास के नियम क्या हैं ? ऐसे कौन कौन से नियम हैं जो जीवन की महा हानि तथा अन्त में मृत्यु लाते हैं ? विनाशकारी नियमों से अपनी रक्षा कैसे की जाए, तथा रक्षाकारी और विकासकारी नियमों के आधीन कैसे चला जाए ? यही शिक्षा असल में सत्य=धर्म की शिक्षा है | अत: अपने मनुष्य-जीवन में जीवन-प्रद नियमों की शत-प्रतिशत पैरवी करना हि सच्चे अर्थों में धर्म-वान बनना है | यदि हम ऐसा नहीं करेंगे, तो हम अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को कौड़ी बदले बेकार कर देंगे |
काश ! हम सब को यह बात अच्छी तरह समझ आ सके |
(देवधर्मी)