मृत्यु से डर |
“मृत्यु से डर क्यों लगता है, तथा इसके डर से कैसे बचा जा सकता है ? इसके बारे में मैं अपनी अति तुच्छ बुद्धी के अनुसार “विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक भगवान् देवात्मा” की अद्वितीय देव-ज्योति के उजाले में उत्तर देने का प्रयास करता हूँ | यथा :-
हम सब जानते हैं कि प्रकृति (Nature) में मनुष्य सबसे विकसित बुद्धिजीवी-प्रजाति है | मनुष्य भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य में जीवित रह सकता है | अर्थात तीनों काल अपने सम्मुख रखकर योजना बनाकर जीवन में बहुत लाभ उठा सकता है | हमारे जीवन के कई पक्ष हैं | शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, कलात्मक, सामाजिक, नैतिक तथा सात्विक आदि | इन सबका ज्ञान पाना बहुत ज़रूरी है | हमें जीने के लिए इन सब पक्षों में एक अभूतपूर्व संतुलन बना कर रखना भी आवश्यक है, तभी सफल जीवन जी सकते हैं, अन्यथा बिलकुल नहीं | जीवन के हर पक्ष में विकास के अलग-अलग क्षेत्र हैं, जिनमे पारंगत होना तथा निरन्तर संघर्ष करना नितांत आवश्यक है | जीवन के उपरोक्त सारे पक्षों से लाखों नहीं अपितु करोड़ों गुणा बढ़कर मूल्यवान तथा परमावश्यक है – आध्यात्मिक-पक्ष का सच्चा ज्ञान तथा बोध लाभ करना और विकास की सीढ़ियों पर ऊपर ही ऊपर चढ़ते चले जाने का निरन्तर प्रयास करना |
विश्व के महान वैज्ञानिक ‘चार्ल्स डार्विन’ ने अपनी वर्षों की अद्वितीय खोज के पश्चात संसार को बताया कि हम पैदा नहीं हुए, अपितु हम पशु-जगत की एक विशेष प्रजाति के द्वारा अनुकूल समय के आने पर पूर्ण शारीरिक-गठन तथा विकासशील बुद्धिशक्ति लेकर विकसित हुए हैं | अत: समय के साथ-साथ हमारी बुद्धि-शक्ति विकसित और विकसित होती जा रही है | यह बुद्धि-शक्ति मनुष्य-जगत के लिए प्रकृति-माता का बहुत बड़ा वरदान है | इसी बुद्धि-शक्ति की बदौलत मनुष्य ने अपने लिए तरह-तरह की सहुलतें तथा सुखों के सामान पैदा तथा विकसित कर लिए हैं, जिनकी बदौलत हम सब जीवन का भरपूर सुख लेते हैं | जीवन का सुख लेते-लेते हम अपने द्वारा निर्मित अपने सुखों के पिंजरे अर्थात जाल के साथ इतने बन्ध गए हैं, कि इससे दूर जाने में हमें डर लगने लगता है |
आप सबने अनुभव किया होगा कि यदि हमें कुछ दिनों के लिए कही दूसरे स्थान या देश में जाने की आवश्यकता पड़े, तो हम अन्दर से थोड़े या अधिक परेशान अवश्य हो जाते हैं | मैंने अपने आफिस में कई लोगों को देखा है कि जब उनकी बदली (Transfer) एक ही कक्ष में एक मेज से दूसरे मेज तक की गई, तब भी वह बहुत परेशानी महसूस करते थे | अर्थात हम सब कहीं न कहीं अपने बन्धनों में अपने आपको अन्जाने तौर पर ही कैद कर लेते हैं, तभी परेशान होते हैं | मृत्यु के बाद हमें कहाँ जाना पड़ेगा, किन लोगों के साथ रहना पडेगा, रह भी पायेंगे या नहीं, हमारे खाने-पीने, ठहरने तथा सुख-सुविधा की क्या व्यवस्था होगी, हमारी आवश्यकताओं के अनुकूल भी होगी या नहीं, ये तथा ऐसी अनेक बातें हमें परेशान करती हैं | इसीलिए हम सब मरने से डरते हैं | मुझे भी मरने से डर लगता है, तथा सभी को मरने से डर लगता है | जो मरने से नहीं डरता, वह या तो निपट पागल है या झूठ बोलता तथा Emotionally Black Mail करता है |
“विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक भगवान् देवात्मा” ने फरामाया है कि मृत्यु के डर का बोध ही असल में धर्मवान बनने की प्रथम शर्त है | अब असल बात यह है कि हम सब शारीरिक-मृत्यु से तो डरते हैं, जबकि शारीरिक-मृत्यु का हमें केवल थोड़ा सा ज्ञान है, बोध नहीं | शारीरिक-मृत्यु के इस अल्प ज्ञान के कारण भी हम सारी आयु मरने से बचे रहते हैं | आप कल्पना करें कि यदि हमे शारीरिक-मृत्यु का बोध हो जाए, तो शायद हमारे पास जीने का केवल एक-सूत्रीय फार्मूला यही रह जाएगा, कि किसी भी तरह हम शारीरिक-मृत्यु से बचे रह सकें | इससे आगे, आत्मा का हमें कोई ज्ञान नहीं | न हम आत्मा का ज्ञान पाना चाहते हैं | इसलिए विश्व में आत्मा का विज्ञान-मूलक सत्य-ज्ञान होते हुए भी हमें कुछ नहीं पता | शरीर की मृत्यु के साथ सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता |
हम ख़ुद आत्मा है, यदि हम आत्मिक रूप में मर जाते हैं, तब हमारी पूर्ण मृत्यु हो जाती है | अत: अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान, बोध तथा रक्षा एवं विकास के लाभ करने का प्रयास करना चाहिए | (इस विषय में श्रद्धेया डा. कुमारी प्रेम देवीजी ने परलोक से छह पुस्तकें लिखवाई हैं, जिनके द्वारा हमें अपने भावी-जीवन के बारे बहुत कुछ ज्ञान लाभ हो सकता है) हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हमारी जीवन-रुपी गाड़ी के Geers इस तरह लगे हुए हैं, कि यह गाड़ी केवल आगे की तरफ जा सकती है, पीछे की तरफ नहीं | अर्थात हम फिर से बच्चे नहीं बन सकते तथा समय के साथ-साथ हम सब स्थूल से सूक्षम रूप में परिवर्तित होते जायेंगे | अत: अभी से सूक्षम-रूप में जीवित रहने का अभ्यास करना चाहिए | हम सूक्षम-आत्मा हैं, लेकिन स्थूल अस्तित्वों के साथ अनुचित निकटता के बन्धन में बंध गए हैं | इसलिए उनसे बिछुड़ने के डर से भी सहमे रहते हैं | इसके साथ-साथ अपने विचारों को उच्च से उच्च बनाना चाहिए तथा जहां तक सम्भव हो अपना तथा औरों का सच्चा हित करते रहना चाहिए | फिर हम जहां भी रहेंगे, अपने लिए वैसा वातावरण बना सकेंगे या लाभ कर सकेंगे, जैसा हम चाहते हैं | हमें मृत्यु का कोई भय नहीं सताएगा, यदि यह खबर रहे कि मरने के पश्चात हम कहाँ जायेंगे, वहां कैसे-कैसे लोगों का साथ मिलेगा, तथा क्या हमने ऐसी योग्यता प्राप्त कर ली है, कि हम अपनी पसंद के लोगों के पास पहुँच सकें | तात्पर्य यह है कि हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी तथा अपने साथ-साथ सबका शुभ चाहना तथा करना होगा | यह भाव तथा यह योग्यता परम पूजनीय भगवान् देवात्मा के देव-प्रभावों को निरन्तर लाभ करने से ही प्राप्त होगी | अत: सदा सबके लिए मन-वचन-कर्म से शुभ-कामनाएं करते रहना चाहिए | इससे हमें बहुत आत्मबल प्राप्त होगा | काश हम सबका हर प्रकार से शुभ हो ! मंगल हो !! कल्याण हो |
“देवधर्मी”
“मृत्यु से डर क्यों लगता है, तथा इसके डर से कैसे बचा जा सकता है ? इसके बारे में मैं अपनी अति तुच्छ बुद्धी के अनुसार “विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक भगवान् देवात्मा” की अद्वितीय देव-ज्योति के उजाले में उत्तर देने का प्रयास करता हूँ | यथा :-
हम सब जानते हैं कि प्रकृति (Nature) में मनुष्य सबसे विकसित बुद्धिजीवी-प्रजाति है | मनुष्य भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य में जीवित रह सकता है | अर्थात तीनों काल अपने सम्मुख रखकर योजना बनाकर जीवन में बहुत लाभ उठा सकता है | हमारे जीवन के कई पक्ष हैं | शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, कलात्मक, सामाजिक, नैतिक तथा सात्विक आदि | इन सबका ज्ञान पाना बहुत ज़रूरी है | हमें जीने के लिए इन सब पक्षों में एक अभूतपूर्व संतुलन बना कर रखना भी आवश्यक है, तभी सफल जीवन जी सकते हैं, अन्यथा बिलकुल नहीं | जीवन के हर पक्ष में विकास के अलग-अलग क्षेत्र हैं, जिनमे पारंगत होना तथा निरन्तर संघर्ष करना नितांत आवश्यक है | जीवन के उपरोक्त सारे पक्षों से लाखों नहीं अपितु करोड़ों गुणा बढ़कर मूल्यवान तथा परमावश्यक है – आध्यात्मिक-पक्ष का सच्चा ज्ञान तथा बोध लाभ करना और विकास की सीढ़ियों पर ऊपर ही ऊपर चढ़ते चले जाने का निरन्तर प्रयास करना |
विश्व के महान वैज्ञानिक ‘चार्ल्स डार्विन’ ने अपनी वर्षों की अद्वितीय खोज के पश्चात संसार को बताया कि हम पैदा नहीं हुए, अपितु हम पशु-जगत की एक विशेष प्रजाति के द्वारा अनुकूल समय के आने पर पूर्ण शारीरिक-गठन तथा विकासशील बुद्धिशक्ति लेकर विकसित हुए हैं | अत: समय के साथ-साथ हमारी बुद्धि-शक्ति विकसित और विकसित होती जा रही है | यह बुद्धि-शक्ति मनुष्य-जगत के लिए प्रकृति-माता का बहुत बड़ा वरदान है | इसी बुद्धि-शक्ति की बदौलत मनुष्य ने अपने लिए तरह-तरह की सहुलतें तथा सुखों के सामान पैदा तथा विकसित कर लिए हैं, जिनकी बदौलत हम सब जीवन का भरपूर सुख लेते हैं | जीवन का सुख लेते-लेते हम अपने द्वारा निर्मित अपने सुखों के पिंजरे अर्थात जाल के साथ इतने बन्ध गए हैं, कि इससे दूर जाने में हमें डर लगने लगता है |
आप सबने अनुभव किया होगा कि यदि हमें कुछ दिनों के लिए कही दूसरे स्थान या देश में जाने की आवश्यकता पड़े, तो हम अन्दर से थोड़े या अधिक परेशान अवश्य हो जाते हैं | मैंने अपने आफिस में कई लोगों को देखा है कि जब उनकी बदली (Transfer) एक ही कक्ष में एक मेज से दूसरे मेज तक की गई, तब भी वह बहुत परेशानी महसूस करते थे | अर्थात हम सब कहीं न कहीं अपने बन्धनों में अपने आपको अन्जाने तौर पर ही कैद कर लेते हैं, तभी परेशान होते हैं | मृत्यु के बाद हमें कहाँ जाना पड़ेगा, किन लोगों के साथ रहना पडेगा, रह भी पायेंगे या नहीं, हमारे खाने-पीने, ठहरने तथा सुख-सुविधा की क्या व्यवस्था होगी, हमारी आवश्यकताओं के अनुकूल भी होगी या नहीं, ये तथा ऐसी अनेक बातें हमें परेशान करती हैं | इसीलिए हम सब मरने से डरते हैं | मुझे भी मरने से डर लगता है, तथा सभी को मरने से डर लगता है | जो मरने से नहीं डरता, वह या तो निपट पागल है या झूठ बोलता तथा Emotionally Black Mail करता है |
“विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक भगवान् देवात्मा” ने फरामाया है कि मृत्यु के डर का बोध ही असल में धर्मवान बनने की प्रथम शर्त है | अब असल बात यह है कि हम सब शारीरिक-मृत्यु से तो डरते हैं, जबकि शारीरिक-मृत्यु का हमें केवल थोड़ा सा ज्ञान है, बोध नहीं | शारीरिक-मृत्यु के इस अल्प ज्ञान के कारण भी हम सारी आयु मरने से बचे रहते हैं | आप कल्पना करें कि यदि हमे शारीरिक-मृत्यु का बोध हो जाए, तो शायद हमारे पास जीने का केवल एक-सूत्रीय फार्मूला यही रह जाएगा, कि किसी भी तरह हम शारीरिक-मृत्यु से बचे रह सकें | इससे आगे, आत्मा का हमें कोई ज्ञान नहीं | न हम आत्मा का ज्ञान पाना चाहते हैं | इसलिए विश्व में आत्मा का विज्ञान-मूलक सत्य-ज्ञान होते हुए भी हमें कुछ नहीं पता | शरीर की मृत्यु के साथ सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता |
हम ख़ुद आत्मा है, यदि हम आत्मिक रूप में मर जाते हैं, तब हमारी पूर्ण मृत्यु हो जाती है | अत: अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान, बोध तथा रक्षा एवं विकास के लाभ करने का प्रयास करना चाहिए | (इस विषय में श्रद्धेया डा. कुमारी प्रेम देवीजी ने परलोक से छह पुस्तकें लिखवाई हैं, जिनके द्वारा हमें अपने भावी-जीवन के बारे बहुत कुछ ज्ञान लाभ हो सकता है) हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हमारी जीवन-रुपी गाड़ी के Geers इस तरह लगे हुए हैं, कि यह गाड़ी केवल आगे की तरफ जा सकती है, पीछे की तरफ नहीं | अर्थात हम फिर से बच्चे नहीं बन सकते तथा समय के साथ-साथ हम सब स्थूल से सूक्षम रूप में परिवर्तित होते जायेंगे | अत: अभी से सूक्षम-रूप में जीवित रहने का अभ्यास करना चाहिए | हम सूक्षम-आत्मा हैं, लेकिन स्थूल अस्तित्वों के साथ अनुचित निकटता के बन्धन में बंध गए हैं | इसलिए उनसे बिछुड़ने के डर से भी सहमे रहते हैं | इसके साथ-साथ अपने विचारों को उच्च से उच्च बनाना चाहिए तथा जहां तक सम्भव हो अपना तथा औरों का सच्चा हित करते रहना चाहिए | फिर हम जहां भी रहेंगे, अपने लिए वैसा वातावरण बना सकेंगे या लाभ कर सकेंगे, जैसा हम चाहते हैं | हमें मृत्यु का कोई भय नहीं सताएगा, यदि यह खबर रहे कि मरने के पश्चात हम कहाँ जायेंगे, वहां कैसे-कैसे लोगों का साथ मिलेगा, तथा क्या हमने ऐसी योग्यता प्राप्त कर ली है, कि हम अपनी पसंद के लोगों के पास पहुँच सकें | तात्पर्य यह है कि हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी तथा अपने साथ-साथ सबका शुभ चाहना तथा करना होगा | यह भाव तथा यह योग्यता परम पूजनीय भगवान् देवात्मा के देव-प्रभावों को निरन्तर लाभ करने से ही प्राप्त होगी | अत: सदा सबके लिए मन-वचन-कर्म से शुभ-कामनाएं करते रहना चाहिए | इससे हमें बहुत आत्मबल प्राप्त होगा | काश हम सबका हर प्रकार से शुभ हो ! मंगल हो !! कल्याण हो |
“देवधर्मी”