माता-पिता के परम उपकार |
एक एक माता अपनी संतान को अपने गर्भ में नौ महीने रखकर, असह्य कष्टों में से गुज़रती है | संतान के जन्म-काल के समय कितनी ही माताओं की मृत्यु भी हो जाती है | जो बच जाती हैं, वह मानो नया जन्म धारण करती हैं | इसके बाद भी कितने ही समय तक उनको कई प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं | वह कमज़ोर तथा दुर्बल हो जाती हैं | कईयों को यह दुर्बलता सारी सारी आयु झेलनी पड़ती है | कई माताओं के भीतर नाना प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं | इससे आगे, अपनी संतान को पालने में, सर्दी गर्मी से उसकी रक्षा करने में, भूख-प्यास में उसकी सेवा करने में, उसकी एक-एक बीमारी में माता को अनेक प्रकार के यत्न करने पड़ते हैं | महीनों, वर्षों वह अपने सुख-आराम को त्याग कर अपने बच्चे को आराम पहुंचाना अपने जीवन का लक्ष्य बना लेती है | एक-एक माता जिस तरह से नाना प्रकार के कष्टों में से गुज़रती है, उस दृश्य को अपने सम्मुख वही जन ला सकता है, जिसको मां बनने का अवसर मिला है | एक-एक मां जिन कष्टों में से गुज़रती है, किसी और जन के लिए पूर्ण रूप से तो क्या, अधूरी शक्ल में भी उनको सम्मुख लाना असंभव है | मां की ही हिम्मत है, जो वर्षों तक मुसीबतों में से गुज़रती है | उन मुसीबतों का शब्दों में वर्णन करना किसी के बस की बात नहीं है | तब सोचा जा सकता है, कि किस संतान में यह क्षमता है, कि वह अपनी माता के उपकारों का हित-परिशोध कर सके |
संतान को पालने के लिए पिता ने जो वर्षों घोर से घोर कष्ट तथा दुःख सहे हैं, मुसीबतें उठाई हैं, यत्न किये हैं, उनका अनुमान कौन लगा सकता है तथा कौन उनका सच्चा परिशोध कर सकता है ? किस संतान में ऐसी योग्यता है, कि वह अपने जन्म-दाता, रक्षा-कर्ता, पालन-कर्ता तथा शिक्षा-दाता माता-पिता के उपकारों को पूर्ण रूप से स्मरण भी कर सके ?
इससे आगे, अपनी संतान की विघ्न-बाधाओं से रक्षा करके, बीमारियों से उसे बचाकर, जब बच्चा पांच-सात वर्ष का हो जाता है, तो माता-पिता के द्वारा उसको विद्या प्राप्ति के लिए विद्यालय में प्रवेश दिलाया जाता है | निर्धन होकर भी माता-पिता बच्चे की शिक्षा के खर्च को सहन करते हैं | इस विश्व में जो बड़े-बड़े विद्वान् हैं, वह सब माता-पिता की कृपा तथा अथाह मेहनतों के कारण ही ऐसे विद्वान् बने हैं | शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसके विद्या लाभ करने में उसके माता-पिता व उपकारी अभिभावकों का हाथ न हो |
इससे भी आगे, माता-पिता बड़े परिश्रम से इकट्ठा किया हुआ धन, माल, मकान आदि इस दुनिया से विदा होते समय अपनी संतान को दे जाते हैं | उनकी संतान इस धन, माल, मकान आदि को पाकर बड़े आराम से अपना जीवन व्यतीत करती है | तब ऐसे माता-पिता के असंख्य उपकारों का बदला चुकाना, क्या किसी संतान के वश की बात है ? नहीं है |
कई माता-पिता अपनी संतान को जन्म के साथ ही “धर्म-भाव” आत्मिक-पूंजी अर्थात विरासत (Heredity) के रूप में प्रदान करते हैं | यदि किसी जन को यह धर्म-भाव जन्म के समय प्राप्त न हों तथा इन भावों को उन्नत करने के लिए उसे अनुकूल हालात या वातावरण या परिवेश प्राप्त न हों, तो ज़मीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति, घर-बार तथा मकान आदि पाकर भी ऐसी सन्तान मृत्यु के पश्चात सीधे अधमलोक में जाती है | धर्म-भावों से विहीन संतान को यदि कोई महान व्यक्ति उस पर तरस खाकर उसमे धर्म-अभिलाषा जाग्रत करने का प्रयास करे तथा उसे कोई हितकर बात सुनाना भी चाहे, तो ऐसी संतान उसकी कोई हितकर बात सुनना नहीं चाहती | क्योंकि उसमे धर्म-भावों की ऐसी अच्छी पूंजी ही नहीं, जिस पर अच्छी तथा हितकर बातों का प्रभाव हो सकता; इसलिए ऐसे जन यदि कभी उच्च-संगत में बैठ भी जाएँ, उनके सम्मुख अच्छे भजन गाये जाएँ, उनको नीच चिंताओं तथा नीच-गतियों से बचाने के यत्न किये जाएँ तथा उनमे उच्च-भाव उत्पन्न व विकसित करने के प्रयास किये जाएँ, तो ऐसे जीवन-दायक उच्च प्रभावों का उन पर कोई उच्च-प्रभाव नहीं पड़ता | किसी जन को जन्म के साथ ही यदि माता-पिता से धर्म-भावों की पूंजी न मिले, तो उसका कैसा दुर्भाग्य ! ऐसे अभागों के लिए कोई उच्च से उच्च साधन ‘कल्याणकारी तथा हितकर’ प्रमाणित नहीं होता | वह इस सारे संग्राम का कोई मूल्य (Higher Value) नहीं समझते | कई सूरतों में धर्म के साधनों का परिहास करते हैं तथा उसको केवल एक ढकोसला या तमाशा समझते हैं | उच्च से उच्च हितकारी तथा उपकारी आत्मा को वह हितकारी तथा उपकारी नहीं समझते | धर्म-भावों की जीवन-दायक पूँजी से कंगाल मनुष्यात्मा इस दुनिया के अनेक प्रकार के साज़ो-सामान रखकर, धन कमाकर, विद्वान् होकर, यहाँ इस दुनिया में भी अनुचित दु:खों के भागी बनते हैं तथा मरने के बाद अधमलोक के महा भयानक दु:खों के भी भागी बनते हैं | अंतत: पतित होते होते (अर्थात आत्मा की अवस्था के विचार से नीचे जाते जाते) अपने अस्तित्व विशेषत: आत्मा के विचार से एक दिन ख़त्म हो जाते हैं |
तब जो माता-पिता अपनी संतान को धर्म-भावों की पूंजी जन्मजात विरासत में दे जाते हैं, वह उच्च जीवन-दाता श्री देवगुरु भगवान् की शरण में आकर तथा उनके महान शिष्यों की उच्च-संगत में आकर महोच्च-जीवन के अधिकारी बन जाते हैं | वह अपने भीतर से आत्म-विनाशक ज़हर को त्याग कर अमृत को लाभ करने के प्रयासों में लग जाते हैं | जहाँ तक सम्भव हो, वह औरों तक भी इस देव-अमृत को पहुंचाने का यत्न करते हैं |
यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है, कि ऐसी कौनसी संतान है, जो अपने सारे जीवन को भेंट करके भी अपने माता-पिता के इस उपकार का बदला दे सकती हो ? तात्पर्य यह है कि माता-पिता के द्वारा ‘उच्च धर्म-भावों’ को जन्म-जात विरासत के रूप में प्राप्त करना किसी मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य है |
अत: हम सबको अपने आपसे यह प्रश्न करना चाहिए कि क्या हमें यह धर्म-भाव आत्मिक-पूँजी के रूप में जन्म-जात प्राप्त हुए हैं, अथवा नहीं | यदि हाँ, तो क्या हमें ऐसी उच्च-संगत का वातावरण उपलब्ध है, जिसमे यह धर्म-भाव सुरक्षित रह सकें तथा विकसित हो सकें | हमें अपने आपसे यह भी प्रश्न करना चाहिए, कि क्या हम अपने तौर पर भी अपने धर्म-भावों को सुरक्षित तथा विकसित करने का कोई प्रयास करते हैं अथवा नहीं | यदि नहीं, तो हमारा आत्मिक-जीवन बहुत बड़े ख़तरे में है तथा हमें सचेत हो जाने की आवश्यकता है | बचपन में मुझे एक फ़िल्मी गाना सुनने का मौक़ा मिला करता था – तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग ज़रा | आज उस गाने का मर्म समझ आता है | जिस मनुष्य को माता-पिता से यह उपहार विरासत के रूप में मिल जाता है तथा जो अपनी इस धर्म-पूँजी की सुरक्षा तथा विकास का कोई प्रयास नहीं करता, याद रक्खो, वह एक न एक दिन आत्मिक-मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है |
“देवधर्मी”
एक एक माता अपनी संतान को अपने गर्भ में नौ महीने रखकर, असह्य कष्टों में से गुज़रती है | संतान के जन्म-काल के समय कितनी ही माताओं की मृत्यु भी हो जाती है | जो बच जाती हैं, वह मानो नया जन्म धारण करती हैं | इसके बाद भी कितने ही समय तक उनको कई प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं | वह कमज़ोर तथा दुर्बल हो जाती हैं | कईयों को यह दुर्बलता सारी सारी आयु झेलनी पड़ती है | कई माताओं के भीतर नाना प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं | इससे आगे, अपनी संतान को पालने में, सर्दी गर्मी से उसकी रक्षा करने में, भूख-प्यास में उसकी सेवा करने में, उसकी एक-एक बीमारी में माता को अनेक प्रकार के यत्न करने पड़ते हैं | महीनों, वर्षों वह अपने सुख-आराम को त्याग कर अपने बच्चे को आराम पहुंचाना अपने जीवन का लक्ष्य बना लेती है | एक-एक माता जिस तरह से नाना प्रकार के कष्टों में से गुज़रती है, उस दृश्य को अपने सम्मुख वही जन ला सकता है, जिसको मां बनने का अवसर मिला है | एक-एक मां जिन कष्टों में से गुज़रती है, किसी और जन के लिए पूर्ण रूप से तो क्या, अधूरी शक्ल में भी उनको सम्मुख लाना असंभव है | मां की ही हिम्मत है, जो वर्षों तक मुसीबतों में से गुज़रती है | उन मुसीबतों का शब्दों में वर्णन करना किसी के बस की बात नहीं है | तब सोचा जा सकता है, कि किस संतान में यह क्षमता है, कि वह अपनी माता के उपकारों का हित-परिशोध कर सके |
संतान को पालने के लिए पिता ने जो वर्षों घोर से घोर कष्ट तथा दुःख सहे हैं, मुसीबतें उठाई हैं, यत्न किये हैं, उनका अनुमान कौन लगा सकता है तथा कौन उनका सच्चा परिशोध कर सकता है ? किस संतान में ऐसी योग्यता है, कि वह अपने जन्म-दाता, रक्षा-कर्ता, पालन-कर्ता तथा शिक्षा-दाता माता-पिता के उपकारों को पूर्ण रूप से स्मरण भी कर सके ?
इससे आगे, अपनी संतान की विघ्न-बाधाओं से रक्षा करके, बीमारियों से उसे बचाकर, जब बच्चा पांच-सात वर्ष का हो जाता है, तो माता-पिता के द्वारा उसको विद्या प्राप्ति के लिए विद्यालय में प्रवेश दिलाया जाता है | निर्धन होकर भी माता-पिता बच्चे की शिक्षा के खर्च को सहन करते हैं | इस विश्व में जो बड़े-बड़े विद्वान् हैं, वह सब माता-पिता की कृपा तथा अथाह मेहनतों के कारण ही ऐसे विद्वान् बने हैं | शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसके विद्या लाभ करने में उसके माता-पिता व उपकारी अभिभावकों का हाथ न हो |
इससे भी आगे, माता-पिता बड़े परिश्रम से इकट्ठा किया हुआ धन, माल, मकान आदि इस दुनिया से विदा होते समय अपनी संतान को दे जाते हैं | उनकी संतान इस धन, माल, मकान आदि को पाकर बड़े आराम से अपना जीवन व्यतीत करती है | तब ऐसे माता-पिता के असंख्य उपकारों का बदला चुकाना, क्या किसी संतान के वश की बात है ? नहीं है |
कई माता-पिता अपनी संतान को जन्म के साथ ही “धर्म-भाव” आत्मिक-पूंजी अर्थात विरासत (Heredity) के रूप में प्रदान करते हैं | यदि किसी जन को यह धर्म-भाव जन्म के समय प्राप्त न हों तथा इन भावों को उन्नत करने के लिए उसे अनुकूल हालात या वातावरण या परिवेश प्राप्त न हों, तो ज़मीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति, घर-बार तथा मकान आदि पाकर भी ऐसी सन्तान मृत्यु के पश्चात सीधे अधमलोक में जाती है | धर्म-भावों से विहीन संतान को यदि कोई महान व्यक्ति उस पर तरस खाकर उसमे धर्म-अभिलाषा जाग्रत करने का प्रयास करे तथा उसे कोई हितकर बात सुनाना भी चाहे, तो ऐसी संतान उसकी कोई हितकर बात सुनना नहीं चाहती | क्योंकि उसमे धर्म-भावों की ऐसी अच्छी पूंजी ही नहीं, जिस पर अच्छी तथा हितकर बातों का प्रभाव हो सकता; इसलिए ऐसे जन यदि कभी उच्च-संगत में बैठ भी जाएँ, उनके सम्मुख अच्छे भजन गाये जाएँ, उनको नीच चिंताओं तथा नीच-गतियों से बचाने के यत्न किये जाएँ तथा उनमे उच्च-भाव उत्पन्न व विकसित करने के प्रयास किये जाएँ, तो ऐसे जीवन-दायक उच्च प्रभावों का उन पर कोई उच्च-प्रभाव नहीं पड़ता | किसी जन को जन्म के साथ ही यदि माता-पिता से धर्म-भावों की पूंजी न मिले, तो उसका कैसा दुर्भाग्य ! ऐसे अभागों के लिए कोई उच्च से उच्च साधन ‘कल्याणकारी तथा हितकर’ प्रमाणित नहीं होता | वह इस सारे संग्राम का कोई मूल्य (Higher Value) नहीं समझते | कई सूरतों में धर्म के साधनों का परिहास करते हैं तथा उसको केवल एक ढकोसला या तमाशा समझते हैं | उच्च से उच्च हितकारी तथा उपकारी आत्मा को वह हितकारी तथा उपकारी नहीं समझते | धर्म-भावों की जीवन-दायक पूँजी से कंगाल मनुष्यात्मा इस दुनिया के अनेक प्रकार के साज़ो-सामान रखकर, धन कमाकर, विद्वान् होकर, यहाँ इस दुनिया में भी अनुचित दु:खों के भागी बनते हैं तथा मरने के बाद अधमलोक के महा भयानक दु:खों के भी भागी बनते हैं | अंतत: पतित होते होते (अर्थात आत्मा की अवस्था के विचार से नीचे जाते जाते) अपने अस्तित्व विशेषत: आत्मा के विचार से एक दिन ख़त्म हो जाते हैं |
तब जो माता-पिता अपनी संतान को धर्म-भावों की पूंजी जन्मजात विरासत में दे जाते हैं, वह उच्च जीवन-दाता श्री देवगुरु भगवान् की शरण में आकर तथा उनके महान शिष्यों की उच्च-संगत में आकर महोच्च-जीवन के अधिकारी बन जाते हैं | वह अपने भीतर से आत्म-विनाशक ज़हर को त्याग कर अमृत को लाभ करने के प्रयासों में लग जाते हैं | जहाँ तक सम्भव हो, वह औरों तक भी इस देव-अमृत को पहुंचाने का यत्न करते हैं |
यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है, कि ऐसी कौनसी संतान है, जो अपने सारे जीवन को भेंट करके भी अपने माता-पिता के इस उपकार का बदला दे सकती हो ? तात्पर्य यह है कि माता-पिता के द्वारा ‘उच्च धर्म-भावों’ को जन्म-जात विरासत के रूप में प्राप्त करना किसी मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य है |
अत: हम सबको अपने आपसे यह प्रश्न करना चाहिए कि क्या हमें यह धर्म-भाव आत्मिक-पूँजी के रूप में जन्म-जात प्राप्त हुए हैं, अथवा नहीं | यदि हाँ, तो क्या हमें ऐसी उच्च-संगत का वातावरण उपलब्ध है, जिसमे यह धर्म-भाव सुरक्षित रह सकें तथा विकसित हो सकें | हमें अपने आपसे यह भी प्रश्न करना चाहिए, कि क्या हम अपने तौर पर भी अपने धर्म-भावों को सुरक्षित तथा विकसित करने का कोई प्रयास करते हैं अथवा नहीं | यदि नहीं, तो हमारा आत्मिक-जीवन बहुत बड़े ख़तरे में है तथा हमें सचेत हो जाने की आवश्यकता है | बचपन में मुझे एक फ़िल्मी गाना सुनने का मौक़ा मिला करता था – तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग ज़रा | आज उस गाने का मर्म समझ आता है | जिस मनुष्य को माता-पिता से यह उपहार विरासत के रूप में मिल जाता है तथा जो अपनी इस धर्म-पूँजी की सुरक्षा तथा विकास का कोई प्रयास नहीं करता, याद रक्खो, वह एक न एक दिन आत्मिक-मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है |
“देवधर्मी”