प्रिय मित्रो ! कल मैंने एक लेख “आजकल के धार्मिक-बाबाओं के विषय में” अपलोड किया था, जिसमे यह स्पष्ट करने का प्रयास किया था, कि साधारण लोगों को छोड़कर यदि हम बड़े-बड़े पढे-लिखे तथा ऊंचा पद रखने वाले, बड़े-बड़े नेताओं आदि की ओर देखें, तो पायेंगे कि वह लोग भी ऐसे तथाकथित धार्मिक-बाबाओं के चक्कर में अक्सर फंस जाते हैं | ऐसा क्यों होता है ? अत: हम सबको “मनुष्य के मूल-स्वभाव”, उसकी क्षमता, अक्षमता तथा प्रकृति (Nature) में सम्भव तथा असम्भव के विषय में कुछ मोटा-मोटा सत्य-ज्ञान लाभ करना बहुत आवश्यक है | इस विषय में “विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म के एकमात्र प्रवर्तक एवं संस्थापक परम पूजनीय भगवान् देवात्मा” की अद्वितीय शिक्षा तथा अपने अनुभव से मुझे जो कुछ समझ आया है तथा आ रहा है, उसका सारांश यह है, कि
1 इस विश्व में यह हमारा पहला जन्म है | इससे पहले हमारा इस धरती पर कभी जन्म नहीं हुआ | जब हम विश्व से विदा हो जायेंगे अर्थात जब हमारी मृत्यु हो जायेगी, तब दोबारा हमारा कभी जन्म नहीं होगा | अर्थात यही हमारा पहला तथा यही हमारा अन्तिम जन्म है | अत: इस “मनुष्य-जीवन” को प्रकृति-माता (Nature) का एक अमुल्य तथा दुर्लभ वरदान तथा अनुपम अवसर जानकार हमे इसे बहुत ही सुन्दर तथा हितकर ढंग से तथा सच्चाई और भलाई के साथ जीना चाहिए |
2 हमारी जीवनी-शक्ति अर्थात आत्मा की अपनी एक अति अदभुत एवं जटिल संरचना अर्थात गठन
है | हमारी आत्मा शरीर के साथ ही जन्म लेती है, शरीर की ही तरह अलग-अलग परिस्थितियों में रोग्रस्त हो जाती है | यदि इसकी यह रोग-ग्रस्त अवस्था लगातार चलती रहे और इस का उचित इलाज न किया जा सके या न हो सके, तो एक दिन शरीर की ही तरह पूरी तरह नष्ट हो कर मर जाती है | जिस तरह शरीर को विभिन्न परिस्थितियों में स्वस्थ रखा जा सकता है, उसी तरह आत्मा को भी स्वस्थ रखा जा सकता है | शरीर को सदा जीवित रखने का विज्ञान के पास अभी कोई सूत्र उपलब्ध नहीं है; यद्यपि शारीरिक-जीवन को लम्बा अवश्य किया जा सकता है तथा किया जा रहा है |
3 हम शरीर नहीं बल्कि “आत्मा” हैं | सब मनुष्यात्मा गहरे आत्म-अन्धकार में बुरी तरह ग्रस्त हैं | हम आत्मिक तौर पर उसी तरह अधूरे हैं, जिस तरह समूचा पशु-जगत शारीरिक तौर पर अधूरा है | हमारी आत्मिक-गठन (Soul Organism ) बहुत ही दोष-युक्त है | अर्थात हम सब ‘मनुष्य’ आत्मिक-रोगों में बुरी तरह ग्रस्त हैं तथा हमें अपनी इस महा भयानक रोगी अवस्था का कुछ पता नहीं है, इसलिए रोगों के कोई निदान की अपेक्षा हम सब खाने-पीने तथा मौजबहार में मस्त रहते हैं |
4 हम सब ‘मनुष्य’ सुख के अनुरागी तथा दुःख से घृणा करते हैं, इसलिए प्राय: सब मनुष्य अपने इन्हीं भावों की तृप्ति के लिए सच्चाई और भलाई का जाने या अनजाने हर समय गला काटते रहते हैं | सुख-अनुराग तथा दुखों से घृणा के फलस्वरूप सब मनुष्य जाने-अनजाने झूठ और बुराई को बहुत प्रेम करते हैं | विश्व में जितने प्रकार की बुराइयां, पाप, दुराचार आदि फैले हुए हैं, उन सब के यही मुख्य कारण हैं | इन्हीं आत्मिक-रोगों के कारण हम सब मनुष्य धीरे-धीरे आत्मिक-पतन की ओर जाते-जाते शरीर के सदृश्य ‘आत्मिक-मृत्यु’ को प्राप्त होते हैं | यह कटु-सत्य भगवान् देवात्मा से पूर्व आज तक कोई नहीं बता सका, क्योंकि किसी को मालूम ही नहीं था | अर्थात अपनी आत्मिक-मृत्यु से रक्षा, विकास तथा अमरता लाभ करने की विधि का नाम ही सत्य धर्म है, जिसका ज्ञान केवल भगवान् देवात्मा को है, क्योंकि उनकी आत्मिक-गठन पूर्ण थी, जबकि हम सबकी आत्मिक-गठन बहुत अधूरी तथा विकार युक्त है |
5 मनुष्य का “प्रकृति-मूलक सत्य-लक्ष्य” यह है कि वह अपने आप को विश्व की धरोहर जाने तथा प्रकृति के विकास-क्रम (Evolutionary Process) का सच्चा सहायकारी बनकर जीवन यापन करे | अर्थात वह अधिक से अधिक निर्माणकारी और विकासकारी कार्य करे, क्योंकि ऐसा करने से जहाँ वह प्रकृति का सच्चा साथी बनता है, वहां वह अधिक से अधिक लम्बी आयु (इस लोक तथा परलोक की) पाने का सच्चा अधिकारी भी बनता है | हम इस बात को माने अथवा न माने कि हम सबकी एक दिन मृत्यु हो जायेगी | अत: उस क्षण का सामना करने के लिए हमें बहुत तैयारी करने की आवश्यकता है | विश्व में निर्माणकारी तथा विकासकारी कार्यों का सच्चा साथी बनना ही वह असल तैयारी है, जो हमें मृत्यु का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है |
अब थोड़ा सा विचार करते हैं सम्भव तथा असम्भव के बारे में |
1 प्रकृति (Nature) में उसके विश्व-व्यापी अटल नियमों के अनुसार बहुत सी बातें सम्भव हैं तथा बहुत सी बातें असम्भव हैं, जिनका ज्ञान लाभ करना तथा सम्भव किन्तु हितकर नियमों का साथ देना बहुत आवश्यक है | यह एक अकाट्य सत्य है कि जिस जीव की एक बार मृत्यु हो जाए, वह फिर कभी जीवित नहीं हो सकता; अर्थात हर बार नया जीव उत्पन्न होता है |
2 प्रकृति (Nature) में चमत्कार व जादू नाम की कोई चीज़ नहीं है | जो जादूगर हमें तमाशा दिखाते हैं, वह केवल उनका बौद्धिक-कौशल होता है, जिसे हमारी आँखें देख नहीं पाती तथा बुद्धी समझ नहीं पाती | इसलिए हम उन्हें जादू समझने का मिथ्या भ्रम पाल लेते हैं |
3 सब मनुष्य “आध्यात्मिक-दृष्टि” से बहुत अधूरे, अल्प-ज्ञानी तथा सीमित योग्यताओं के साथ-साथ बहुत त्रुटि-पूर्ण जीवन रखते हैं तथा आध्यात्मिक-जीवन की दृष्टि से खोखला जीवन रखते हैं | अत: अन्दर से कहीं न कहीं डरे हुए अर्थात धर्म-भीरु होते हैं | इसलिए हम अनजाने में ही पूर्णत धर्महीन पाखण्डी बाबाओं के चक्र-व्यूह में फंस जाते हैं तथा अपने मान-सम्मान, धन-सम्पदा तथा अन्य कई बातों के विचार से एक दिन लुट जाते हैं तथा ठगे हुए महसूस करते हैं | हमें तो किन्नर ही डरा लेते हैं कि वह हमें श्राप दे देंगे यदि हमने उनकी मांग पूरी न की |
4 प्रकृति (Nature) में कोई अस्तित्व ‘सर्वज्ञानी’ ‘सर्वव्यापक’ तथा ‘सर्व-शक्तिमान’ नहीं है तथा न कभी हो सकता है, क्योंकि प्रकृति (Nature) के विश्व-व्यापी अटल नियमों के अनुसार ऐसे किसी अस्तित्व का होना असम्भव है | अत: किसी जन पर, विशेषत: तथाकथित धार्मिक-जन पर विज्ञान-सम्मत अटल विधि के अनुसार गहन अध्ययन तथा उचित जांच-पड़ताल किये बिना कभी पूर्ण विश्वास नहीं करना चाहिए | इसके अतिरिक्त किसी जन को Blank cheque कभी नहीं देना चाहिए; अर्थात अनुचित छूट नहीं देनी चाहिए | आवश्यकता से अधिक विश्वास करने वाले एक दिन अवश्य धोखा खाते हैं, क्योंकि अधूरी तथा विकार-युक्त आत्मिक-गठन के कारण कोई मनुष्य शत-प्रति-शत विश्वास के योग्य नहीं है | कहा भी गया है, कि कभी किसी को तब तक महान न समझो, जब तक कि वह मर न जाए | इसलिए किसी जन से अनुचित निकटता नहीं बढ़ानी चाहिए | अर्थात उचित निकटता तथा उचित दूरी बनाकर रखनी चाहिए | अंतत: अपनी रक्षा तथा विकास के लिए हमारा स्वयं का ही सबसे बढ़कर उत्तरदायित्व है | तात्पर्य यह है, कि तथाकथित पाखण्डी बाबाओं को अनाचार, कदाचार तथा व्यभिचार करने की मूर्खता पूर्ण छूट हम स्वयं ही देते हैं, तभी उनका दुस्साहस इतना बढ़ जाता है, कि वह जन साधारण को भेड़-बकरियां समझने लगते हैं |
5 कहलाने वाले ‘तथाकथित धार्मिक-महापुरुष’ धर्म-ज्ञान की दृष्टि से पूरी तरह ज्ञान-शून्य अर्थात खोखले होते हैं, क्योंकि वह प्रकृति (Nature) के नियमानुसार विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म का मर्मज्ञ होने के लिए आवश्यक शर्तें पूरी नहीं करते |
प्रिय मित्रो ! यहाँ यह भी स्पष्ट करना अति आवश्यक है, कि वास्तव में धर्म होता क्या है ? हमारा अस्तित्व मुख्यत: दो भागों से मिलकर बना है | एक भाग को शरीर (जो जड़ पदार्थों से बना होता है) तथा दूसरा भाग जीवनी-शक्ति जिसे साधारण शब्दों में हम “आत्मा” कहते हैं, दोनों के मेल से बना होता है | जिस तरह “चिकित्सा-विज्ञान” (Medical Science) हमारे शारीरिक-अंगों के स्वास्थ्य, रख-रखाव तथा उन्हें शक्तिशाली बनाने की विधि का नाम है | ठीक उसी तरह “धर्म-विज्ञान” हमारे “आत्मा” के अंगों अर्थात विविध भाव-शक्तियों के स्वास्थ्य, रख-रखाव तथा उन्हें शक्तिशाली बनाने की विधि का नाम है | सरल शब्दों में – जिस विधि के द्वारा हमारी आत्मा स्वस्थ, निरोग तथा शक्तिशाली बनी रहे तथा उसके सारे अंग अपना-अपना कार्य सुचारू रूप से पूरा करने के योग्य बने रहें, उसी विधि का नाम “धर्म-विज्ञान” अर्थात “सत्य-धर्म” है |
आशा करता हूँ कि आप मेरे भावों को समझ गए होंगे तथा कभी किसी धूर्त अर्थात तथाकथित पाखण्डी के चक्कर में फंस अपने अमूल्य जीवन की हानि नहीं करेंगे |
हम सबके भले का, शुभ का, हित का, कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो | हम सबको परम पूजनीय भगवान् देवात्मा की विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म शिक्षा समझ आ सके तथा हम अपने हित के प्रबल आकांक्षी बन सकें |
1 इस विश्व में यह हमारा पहला जन्म है | इससे पहले हमारा इस धरती पर कभी जन्म नहीं हुआ | जब हम विश्व से विदा हो जायेंगे अर्थात जब हमारी मृत्यु हो जायेगी, तब दोबारा हमारा कभी जन्म नहीं होगा | अर्थात यही हमारा पहला तथा यही हमारा अन्तिम जन्म है | अत: इस “मनुष्य-जीवन” को प्रकृति-माता (Nature) का एक अमुल्य तथा दुर्लभ वरदान तथा अनुपम अवसर जानकार हमे इसे बहुत ही सुन्दर तथा हितकर ढंग से तथा सच्चाई और भलाई के साथ जीना चाहिए |
2 हमारी जीवनी-शक्ति अर्थात आत्मा की अपनी एक अति अदभुत एवं जटिल संरचना अर्थात गठन
है | हमारी आत्मा शरीर के साथ ही जन्म लेती है, शरीर की ही तरह अलग-अलग परिस्थितियों में रोग्रस्त हो जाती है | यदि इसकी यह रोग-ग्रस्त अवस्था लगातार चलती रहे और इस का उचित इलाज न किया जा सके या न हो सके, तो एक दिन शरीर की ही तरह पूरी तरह नष्ट हो कर मर जाती है | जिस तरह शरीर को विभिन्न परिस्थितियों में स्वस्थ रखा जा सकता है, उसी तरह आत्मा को भी स्वस्थ रखा जा सकता है | शरीर को सदा जीवित रखने का विज्ञान के पास अभी कोई सूत्र उपलब्ध नहीं है; यद्यपि शारीरिक-जीवन को लम्बा अवश्य किया जा सकता है तथा किया जा रहा है |
3 हम शरीर नहीं बल्कि “आत्मा” हैं | सब मनुष्यात्मा गहरे आत्म-अन्धकार में बुरी तरह ग्रस्त हैं | हम आत्मिक तौर पर उसी तरह अधूरे हैं, जिस तरह समूचा पशु-जगत शारीरिक तौर पर अधूरा है | हमारी आत्मिक-गठन (Soul Organism ) बहुत ही दोष-युक्त है | अर्थात हम सब ‘मनुष्य’ आत्मिक-रोगों में बुरी तरह ग्रस्त हैं तथा हमें अपनी इस महा भयानक रोगी अवस्था का कुछ पता नहीं है, इसलिए रोगों के कोई निदान की अपेक्षा हम सब खाने-पीने तथा मौजबहार में मस्त रहते हैं |
4 हम सब ‘मनुष्य’ सुख के अनुरागी तथा दुःख से घृणा करते हैं, इसलिए प्राय: सब मनुष्य अपने इन्हीं भावों की तृप्ति के लिए सच्चाई और भलाई का जाने या अनजाने हर समय गला काटते रहते हैं | सुख-अनुराग तथा दुखों से घृणा के फलस्वरूप सब मनुष्य जाने-अनजाने झूठ और बुराई को बहुत प्रेम करते हैं | विश्व में जितने प्रकार की बुराइयां, पाप, दुराचार आदि फैले हुए हैं, उन सब के यही मुख्य कारण हैं | इन्हीं आत्मिक-रोगों के कारण हम सब मनुष्य धीरे-धीरे आत्मिक-पतन की ओर जाते-जाते शरीर के सदृश्य ‘आत्मिक-मृत्यु’ को प्राप्त होते हैं | यह कटु-सत्य भगवान् देवात्मा से पूर्व आज तक कोई नहीं बता सका, क्योंकि किसी को मालूम ही नहीं था | अर्थात अपनी आत्मिक-मृत्यु से रक्षा, विकास तथा अमरता लाभ करने की विधि का नाम ही सत्य धर्म है, जिसका ज्ञान केवल भगवान् देवात्मा को है, क्योंकि उनकी आत्मिक-गठन पूर्ण थी, जबकि हम सबकी आत्मिक-गठन बहुत अधूरी तथा विकार युक्त है |
5 मनुष्य का “प्रकृति-मूलक सत्य-लक्ष्य” यह है कि वह अपने आप को विश्व की धरोहर जाने तथा प्रकृति के विकास-क्रम (Evolutionary Process) का सच्चा सहायकारी बनकर जीवन यापन करे | अर्थात वह अधिक से अधिक निर्माणकारी और विकासकारी कार्य करे, क्योंकि ऐसा करने से जहाँ वह प्रकृति का सच्चा साथी बनता है, वहां वह अधिक से अधिक लम्बी आयु (इस लोक तथा परलोक की) पाने का सच्चा अधिकारी भी बनता है | हम इस बात को माने अथवा न माने कि हम सबकी एक दिन मृत्यु हो जायेगी | अत: उस क्षण का सामना करने के लिए हमें बहुत तैयारी करने की आवश्यकता है | विश्व में निर्माणकारी तथा विकासकारी कार्यों का सच्चा साथी बनना ही वह असल तैयारी है, जो हमें मृत्यु का सामना करने की शक्ति प्रदान करती है |
अब थोड़ा सा विचार करते हैं सम्भव तथा असम्भव के बारे में |
1 प्रकृति (Nature) में उसके विश्व-व्यापी अटल नियमों के अनुसार बहुत सी बातें सम्भव हैं तथा बहुत सी बातें असम्भव हैं, जिनका ज्ञान लाभ करना तथा सम्भव किन्तु हितकर नियमों का साथ देना बहुत आवश्यक है | यह एक अकाट्य सत्य है कि जिस जीव की एक बार मृत्यु हो जाए, वह फिर कभी जीवित नहीं हो सकता; अर्थात हर बार नया जीव उत्पन्न होता है |
2 प्रकृति (Nature) में चमत्कार व जादू नाम की कोई चीज़ नहीं है | जो जादूगर हमें तमाशा दिखाते हैं, वह केवल उनका बौद्धिक-कौशल होता है, जिसे हमारी आँखें देख नहीं पाती तथा बुद्धी समझ नहीं पाती | इसलिए हम उन्हें जादू समझने का मिथ्या भ्रम पाल लेते हैं |
3 सब मनुष्य “आध्यात्मिक-दृष्टि” से बहुत अधूरे, अल्प-ज्ञानी तथा सीमित योग्यताओं के साथ-साथ बहुत त्रुटि-पूर्ण जीवन रखते हैं तथा आध्यात्मिक-जीवन की दृष्टि से खोखला जीवन रखते हैं | अत: अन्दर से कहीं न कहीं डरे हुए अर्थात धर्म-भीरु होते हैं | इसलिए हम अनजाने में ही पूर्णत धर्महीन पाखण्डी बाबाओं के चक्र-व्यूह में फंस जाते हैं तथा अपने मान-सम्मान, धन-सम्पदा तथा अन्य कई बातों के विचार से एक दिन लुट जाते हैं तथा ठगे हुए महसूस करते हैं | हमें तो किन्नर ही डरा लेते हैं कि वह हमें श्राप दे देंगे यदि हमने उनकी मांग पूरी न की |
4 प्रकृति (Nature) में कोई अस्तित्व ‘सर्वज्ञानी’ ‘सर्वव्यापक’ तथा ‘सर्व-शक्तिमान’ नहीं है तथा न कभी हो सकता है, क्योंकि प्रकृति (Nature) के विश्व-व्यापी अटल नियमों के अनुसार ऐसे किसी अस्तित्व का होना असम्भव है | अत: किसी जन पर, विशेषत: तथाकथित धार्मिक-जन पर विज्ञान-सम्मत अटल विधि के अनुसार गहन अध्ययन तथा उचित जांच-पड़ताल किये बिना कभी पूर्ण विश्वास नहीं करना चाहिए | इसके अतिरिक्त किसी जन को Blank cheque कभी नहीं देना चाहिए; अर्थात अनुचित छूट नहीं देनी चाहिए | आवश्यकता से अधिक विश्वास करने वाले एक दिन अवश्य धोखा खाते हैं, क्योंकि अधूरी तथा विकार-युक्त आत्मिक-गठन के कारण कोई मनुष्य शत-प्रति-शत विश्वास के योग्य नहीं है | कहा भी गया है, कि कभी किसी को तब तक महान न समझो, जब तक कि वह मर न जाए | इसलिए किसी जन से अनुचित निकटता नहीं बढ़ानी चाहिए | अर्थात उचित निकटता तथा उचित दूरी बनाकर रखनी चाहिए | अंतत: अपनी रक्षा तथा विकास के लिए हमारा स्वयं का ही सबसे बढ़कर उत्तरदायित्व है | तात्पर्य यह है, कि तथाकथित पाखण्डी बाबाओं को अनाचार, कदाचार तथा व्यभिचार करने की मूर्खता पूर्ण छूट हम स्वयं ही देते हैं, तभी उनका दुस्साहस इतना बढ़ जाता है, कि वह जन साधारण को भेड़-बकरियां समझने लगते हैं |
5 कहलाने वाले ‘तथाकथित धार्मिक-महापुरुष’ धर्म-ज्ञान की दृष्टि से पूरी तरह ज्ञान-शून्य अर्थात खोखले होते हैं, क्योंकि वह प्रकृति (Nature) के नियमानुसार विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म का मर्मज्ञ होने के लिए आवश्यक शर्तें पूरी नहीं करते |
प्रिय मित्रो ! यहाँ यह भी स्पष्ट करना अति आवश्यक है, कि वास्तव में धर्म होता क्या है ? हमारा अस्तित्व मुख्यत: दो भागों से मिलकर बना है | एक भाग को शरीर (जो जड़ पदार्थों से बना होता है) तथा दूसरा भाग जीवनी-शक्ति जिसे साधारण शब्दों में हम “आत्मा” कहते हैं, दोनों के मेल से बना होता है | जिस तरह “चिकित्सा-विज्ञान” (Medical Science) हमारे शारीरिक-अंगों के स्वास्थ्य, रख-रखाव तथा उन्हें शक्तिशाली बनाने की विधि का नाम है | ठीक उसी तरह “धर्म-विज्ञान” हमारे “आत्मा” के अंगों अर्थात विविध भाव-शक्तियों के स्वास्थ्य, रख-रखाव तथा उन्हें शक्तिशाली बनाने की विधि का नाम है | सरल शब्दों में – जिस विधि के द्वारा हमारी आत्मा स्वस्थ, निरोग तथा शक्तिशाली बनी रहे तथा उसके सारे अंग अपना-अपना कार्य सुचारू रूप से पूरा करने के योग्य बने रहें, उसी विधि का नाम “धर्म-विज्ञान” अर्थात “सत्य-धर्म” है |
आशा करता हूँ कि आप मेरे भावों को समझ गए होंगे तथा कभी किसी धूर्त अर्थात तथाकथित पाखण्डी के चक्कर में फंस अपने अमूल्य जीवन की हानि नहीं करेंगे |
हम सबके भले का, शुभ का, हित का, कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो | हम सबको परम पूजनीय भगवान् देवात्मा की विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म शिक्षा समझ आ सके तथा हम अपने हित के प्रबल आकांक्षी बन सकें |
“देवधर्मी”
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