एक मित्र ने प्रश्न किया है, कि क्या आध्यात्म में मृत्यु पर चिंतन करना आवश्यक है ?
भगवान देवात्मा की अद्वितीय शिक्षा इस विषय मे स्पष्ट करती है कि —
शत प्रति शत उचित है । देवात्मा फरमाते हैं, जिस जन को मृत्यु का बोध नहीं, वह धर्मवान कभी नहीं बन सकता ।
संसार में यह हमारा पहला तथा यही अंतिम जन्म है । यहां से कूच करने के पश्चात हम कभी किसी जन्म में यहां नहीं लौटें सकेंगे । देवात्मा ने तो अपनी मृत्यु से काफी पहले अपनी अर्थी भी बनवा कर रख ली थी, तथा उसमें लेटकर देखा भी था कि क्या वह उनके शरीर के अनुसार छोटी तो नहीं है ?
शत प्रति शत उचित है । देवात्मा फरमाते हैं, जिस जन को मृत्यु का बोध नहीं, वह धर्मवान कभी नहीं बन सकता ।
संसार में यह हमारा पहला तथा यही अंतिम जन्म है । यहां से कूच करने के पश्चात हम कभी किसी जन्म में यहां नहीं लौटें सकेंगे । देवात्मा ने तो अपनी मृत्यु से काफी पहले अपनी अर्थी भी बनवा कर रख ली थी, तथा उसमें लेटकर देखा भी था कि क्या वह उनके शरीर के अनुसार छोटी तो नहीं है ?
अतः इस बात का अनुमान लगाएँ, कि अपने आत्म-स्वरूप के सत्यज्ञान, सत्यबोध तथा अमरत्व को प्राप्त करने की क्षमता तथा योग्यता प्राप्त करना हमारे लिए कितना आवश्यक है ।
बहुत अफसोस होता है यह देखकर कि फेसबुक आदि पर लोग केवल मनोरंजन तथा टाईम पास करते हैं तथा इस तरह अपने अमूल्य जीवन को यूँही खो रहे हैं ।
काश ! हम सबमे आत्मज्ञान तथा आत्मबोध पाने की गहरी आकांक्षा जागृत हो सके !!