भगवद गीता का यह वचन है, कि “श्रद्धावान्म लभते ज्ञानम् |” इसका अर्थ यह है, कि जो श्रद्धावान होते हैं, वही ज्ञान लाभ करते हैं | भगवान् देवात्मा ने फरमाया है, कि “श्रद्धावान्म लभते जीवनम् |” बिना श्रद्धा-भाव के किसी भी जन को, चाहे वह कितना ही विद्वान् क्यों न हो, देवात्मा की देव-ज्योति प्राप्त नहीं होती | बिना देव-ज्योति के ऐसे जन को आत्मा नज़र नहीं आ सकता तथा आत्मिक-रोगी को ‘आत्मा’ के रोग नज़र नहीं आते | इसलिए नीच-रागों तथा नीच-घृणाओं ने जो मनुष्यात्माओं के जीवनों का दिवाला निकाला हुआ है, वह दिवालियापन बिना देव-ज्योति के नज़र नहीं आता | इसलिए आत्मिक-पतन एवं आत्मिक-मृत्यु की हालत भी नज़र नहीं आती | जब आत्मिक-मृत्यु की ठीक-ठीक अवस्था नज़र नहीं आती, तब मनुष्य उसका इलाज क्यों तलाश करेगा ? इसलिए करोड़ों मनुष्यात्मा नीच-रागों तथा नीच-घृणाओं से रोगी होकर भी प्रसन्न दिखाई देते हैं, रोते हुए नज़र नहीं आते | नीच-रागों एवं नीच-घृणाओं की दासता से बाहर निकलने का कोई संग्राम नहीं करते | इसलिए मृत्यु की राह से बाहर निकलकर जीवन के मार्ग पर पड़ना नहीं चाहते | यही कारण है कि देव-ज्योति से विहीन करोड़ों जन ‘उच्च-जीवन’ के अभिलाषी नहीं, ‘आत्मिक-सत्य-मोक्ष’ के अभिलाषी नहीं | जिस श्रद्धा-भाव की विहीनता के कारण मनुष्य देव-ज्योति से शून्य रहते हैं, उस श्रद्धा-भाव की विहीनता का दृश्य मनुष्य के लिए कितना भयानक तथा हानिकारक !
(देवधर्मी)