Satya Dharam Bodh Mission

मानव भक्षी |

पुराने ज़माने का इंसान जो आदिम-युग में जी रहा था,  उसकी सबसे बड़ी ज़रुरत केवल खाने के लिए भोजन,  जंगली जानवरों से शरीर की रक्षा तथा ऐसी ही शरीर सम्बन्धी कुछ और बहुत मामूली सी ज़रूरतें थी |  आदिम-युग का मानव पूरी तरह पशु जीवन व्यतीत करता था |  कोई सामाजिक या नैतिक मूल्य,  धर्म-कर्म या कायदे कानून उसके लिए नहीं थे |  ऐसे हालत में हर समय जान जोखिम में ही पड़ी रहती थी |  पशुओं के साथ-साथ मनुष्य साथी-मनुष्यों को भी मारकर खा जाता था | तब ऐसा करना कोई बुरी बात नहीं समझी जाती थी, क्योंकि प्राय: सब मनुष्य ऐसा ही करते थे |  लेकिन आज के सभ्य समाज में ऐसा करना बहुत बुरा समझा जाता है |  ऐसा समय भी था जब ‘इंसान’ इंसान को भेड़ बकरियों की तरह खरीदता और बेचता था |  आज के युग में ऐसा सोचना भी बहुत बुरी बात मानी जाती है |  

 मानव-भक्षण की तरह पशु-जगत की कितनी ही प्रजातियों में आज भी यह सब कुछ देखने को मिलता है |  कुतिया कई बार अपने ही जाए हुए बच्चों को खा जाती है |  श्रधेय कनल जी लिखते हैं, की एक बार वह बाहर घुमने निकले,  बाहर खुले में उन्हें कुछ कुतों के जोर जोर से भौंकने की आवाजें सुनायी देने लगीं |  पास जाकर देखा, शायद तीन या चार कुते आपस में झगड़ रहे थे | एक के मुह में अपने ही किसी भाई बंधू की हड्डी थी और बाकी सब उससे छीन लेना चाहते थे |  यह दृश्य बहुत दुखदायी था | वहां हरे भरे खेत थे, लहलहाती फसलें थी,  फलों के पेड़ पौधे लगे हुए थे,  लेकिन कुतों को केवल हड्डी ही दिखाई दे रही थी | कितना अन्धकार-पूर्ण दृश्य और कैसी अन्धकार-पूर्ण अवस्था | 

प्रिय मित्रो ! लेकिन हमें यह जान कर आश्चर्य होगा, की सभी पशु-प्रजातियाँ अपनी प्रजाति के सदस्यों को मारकर नहीं खाती | वह केवल पेट की भूख मिटाने के लिए अन्य प्रजाति के जानवरों को ही मारकर खाती हैं | अभी शायद पिछले दो वर्ष पहले हम सब ने T.V. पर कार्यक्रम “सत्य-मेव-जयते” की एक कड़ी में देखा था, जब एक जन ने बताया था, कि मनुष्यों के एक समूह में यह प्रथा थी, कि जब माता-पिता बूढ़े हो जाते थे और कुछ करने लायक नहीं रहते थे, तो उनके जीवन का एक विशेष विधि के द्वारा अंत कर दिया जाता था और उनके मृत शरीर को खाने की तरह पका कर दावत उडाई जाती थी |  हमें सुनने में कैसी हैरानी वाली बात लगती है, लेकिन वास्तव में मनुष्य इतिहास में ऐसा होता रहा है | आज यह बाते पिछड़े ज़माने की बर्बरता पूर्ण घटनाएं लगती हैं | आज यदि किसी मनुष्य के द्वारा कोई ऐसी घटना होती है, तो उसे बहुत पिछड़ा हुआ, बर्बर, मानसिक/आत्मिक रोगी और पशु-स्तर से भी बहुत नीचे गिरा हुआ माना जाता है तथा किसी देश का कानून ऐसे जन को जिंदा रहने का अधिकारी नहीं मानता |  

आज का पढ़ा लिखा और सुसभ्य मनुष्य इस बात पर गर्व कर सकता है, तथा कह सकता है, कि वह मानव-भक्षी नहीं है |  वह इस बर्बरता से बहुत दूर है |  लेकिन प्रिय मित्रो ! हमें स्थिति का सही आकलन करने के लिए “विज्ञान-मूलक सत्य-धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक परम पूजनीय भगवान् देवात्मा” की अद्वितीय देव- ज्योति (अर्थात अद्वितीय सूझ-बूझ) की अतिशय आवश्यकता है |  मानव-भक्षण केवल मनुष्य के शरीर के भक्षण को ही नहीं कहते,  क्योंकि केवल “मनुष्य-शरीर” ही मनुष्य नहीं है |  मनुष्य-जीवन के और भी कितने  ही अंग हैं, जिनके गठन-प्राप्त मेल से मनुष्य के जीवन का अस्तित्व बनता है |  कई बार वह अंग यथा:  सात्विक भाव जैसे श्रधा,  कृतज्ञता,  आत्म-सन्मान आदि आदि ऐसे अंग हैं, कि जो एक मनुष्य के लिए अपने शरीर से भी कहीं बढ़ कर मूल्यवान होते हैं |  इसलिए कई बार एक-एक सात्विक भाव-धारी मनुष्य अपने ऐसे किसी भाव से प्रचलित होकर प्राण तक कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाता है | यदि कोई नीच-भावधारी मनुष्य ऐसे किसी मनुष्य के ऐसे किसी उच्च-अंग पर चोट करता है,  तो वह मानव-भक्षण से किसी भी प्रकार कम नहीं है | यदि कोई जन किसी को धोका देता है, उसके माल-असबाब को लुटता है,   उसके मान-सन्मान पर चोट करता है,  बलात्कार करता है,  प्राण-हानि करता है, या ऐसी ही कोई और अनुचित तथा पाप-मूलक गति करता है, तो वह मानव-भक्षण से कहीं अधिक बढ़कर बर्बर तथा दुखदायी पाप करता है | ऐसी कोई गति करके कोई जन यह कैसे कह सकता है, कि वह मानव-भक्षी नहीं है |  चिकत्सा-विज्ञान के विकास के कारण आज के मनुष्य में शरीर के प्रति काफी जागरूकता आ गई है,  इसलिए वह शरीर सम्बन्धी किसी भी ज्यादती के बारे में बहुत अच्छी तरह समझ सकता है तथा ऐसे किसी भी अन्याय का विरोध कर सकता है और शरीर पर किसी भी आक्रमण से अपनी रक्षा कर सकता है |  मनुष्य शरीर के बहुत सारे रहस्य चिकत्सा-विज्ञान ने हम पर स्पष्ट कर दिए हैं | इसलिए शरीर सम्बन्धी मानव-भक्षण एक पिछड़े युग की गई हुई बात हो गयी है |  

प्यारे मित्रो ! “आत्म-जीवन” की दुनिया आज सारी मानव-प्रजाति के लिए एक मुहर-बंद पुस्तक है |   मनुष्य अस्तित्व में जो मुख्य तथा सार वस्तु है – उसका नाम है जीवनी शक्ति अर्थात आत्मा,  जिस के बारे में सारी मानव-प्रजाति पूरी तरह अंधकार-ग्रस्त है |  अत: आत्मा के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की ज्यादती मानव-भक्षण की अति सूक्ष्म तथा बर्बर गति है |  क्या आज के मनुष्य को इस बात का ज्ञान है, कि वह अपने प्रिय से प्रिय सम्बन्धी की तथा सारे मनुष्य जगत की आत्माओं का भक्षण ठीक उसी तरह कर रहा है जिस तरह बर्बर युग का आदि-मानव मनुष्य शरीरों का भक्षण करता रहा था |  और तो और मनुष्य अपने आत्मा का भी अनजाने तौर पर हर-क्षण भक्षण करता रहता है | पूजनीय भगवान देवात्मा ने अपनी अद्वितीय देव-ज्योति प्रदान करके हम पर स्पष्ट किया है, कि जो मनुष्य अपने आत्मा का सत्य-ज्ञान तथा बोध लाभ नहीं करना चाहता,  वह विश्व में सबसे निकृष्ट प्रकार का मानव-भक्षण करता है |  पशुओं की कई प्रजातियाँ अपने प्रजाति के पशुओं का भक्षण नहीं करती | और जिन दूसरी प्रजातियों के पशुओं का भक्षण करती भी हैं,  वह भी केवल अपनी भूख मिटाने के लिए |  लेकिन यह पढ़ा-लिखा तथा सुसभ्य कहलाने वाला मनुष्य न केवल अपनी प्रजाति,  अपने प्रिय सांसारिक सम्बन्धियों, बल्कि अपने बाल-बच्चों और खुद अपनी आत्मा का भी भक्षण ठीक उसी प्रकार करता है-जिस प्रकार ‘पशु’ पशु-जगत के जीवों का भक्षण करते हैं |    
पिछले ज़माने में लोग लड़कियों को पैदा होने के बाद जान से मार दिया करते थे, लेकिन आज पैदा होने से पहले ही मार देते हैं | भला हो सरकार का, कि जिसने लड़कियों की ह्त्या तो बहुत दूर, लिंग-जांच पर भी कठोरता से प्रतिबन्ध लगा रखा है | फिर भी, गाहे-बगाहे लिंग-जांच से सम्बंधित कोई न कोई ऐसी घटना सामने आ ही जाती है | तात्पर्य यह कि  आज का पढ़ा-लिखा मनुष्य आदि-मानव से कहीं अधिक पाषण-ह्रदयी,  बर्बर तथा पिछड़ा हुआ है | काश:  हम सब तक पूजनीय भगवान् देवात्मा के देवप्रभाव पहुच सकें तथा हम अपनी इस महा-भयानक अवस्था से मुक्त हो सकें और आत्मा की रक्षा और विकास लाभ कर सकें |

हम सबके शुभ का मार्ग प्रशस्त हो ! 

                                                                                  देवधर्मी 
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